Aniruddhacharya se Premanand Maharaj tak: Mahilao ke Character par Baat Kitni Sahi?
क्या महिलाओं की पवित्रता पर प्रवचन देना उचित है? — एक सोचने योग्य विषय
"धर्म का उद्देश्य क्या केवल बाहरी आचरण पर टिप्पणी करना है, या भीतर के उजाले को बढ़ाना?"
आज यह सवाल फिर से हमारे सामने खड़ा है।
पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया और समाचार माध्यमों में एक विषय पर ज़ोरदार बहस छिड़ी है — धार्मिक संतों द्वारा महिलाओं के चरित्र और पवित्रता पर की गई टिप्पणियाँ। कभी अनिरुद्धाचार्य, तो कभी प्रेमानंद महाराज — इन दोनों के बयान ने समाज के हर वर्ग में एक नई हलचल पैदा कर दी है। कुछ लोग इन बयानों को सत्य मान रहे हैं, तो कुछ इसे स्त्री की गरिमा पर सीधा प्रहार मानते हैं।
लेकिन क्या यह बहस केवल किसी एक व्यक्ति विशेष के बयान तक सीमित है? या फिर यह एक गहराई से जड़ें जमाए हुए सोच की परछाई है, जिसे हम अब पहचानने और समझने की कोशिश कर रहे हैं?
जब प्रवचन बन जाएं चरित्र का प्रमाणपत्र
सदियों से संतों और आध्यात्मिक गुरुओं को समाज में मार्गदर्शक के रूप में देखा गया है। लोग उनके प्रवचनों से शांति, समाधान और सद्गति की अपेक्षा करते हैं। लेकिन हाल के कुछ प्रवचनों में देखा गया है कि वे आध्यात्मिक मार्गदर्शन देने की जगह युवाओं के व्यक्तिगत जीवन, चरित्र और रहन-सहन पर कठोर टिप्पणियाँ करने लगे हैं।
प्रेमानंद महाराज के एक हालिया प्रवचन में उन्होंने कहा कि "100 में से मुश्किल से 2-4 लड़कियाँ ही ऐसी होती हैं जो एक पुरुष को समर्पित जीवन जीती हैं।" साथ ही उन्होंने युवाओं के प्रेम संबंधों, ब्रेकअप्स और रहन-सहन की तुलना "व्यभिचार" से कर दी। उनके अनुसार आज के युवा, विशेषकर लड़कियाँ, पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव में चरित्र की पवित्रता से भटक रही हैं।
धार्मिक वक्ता अनिरुद्धाचार्य ने एक न्यूज़ चैनल की डिबेट के दौरान आधुनिक विवाह और रिश्तों पर अपने विचार साझा किए। उन्होंने विवाह पूर्व सहवास (live-in relationships) की आलोचना करते हुए इसे तलाक की बढ़ती दर का मुख्य कारण बताया। अनिरुद्धाचार्य ने ज़ोर देते हुए कहा कि भारतीय संस्कृति में चरित्र की पवित्रता, विशेषकर महिलाओं के लिए, अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। उनके अनुसार, जैसे एक पत्नी अपने पति से निष्ठा की अपेक्षा रखती है, वैसे ही महिलाओं को भी विवाह से पहले अपनी पवित्रता बनाए रखनी चाहिए। यह टिप्पणी सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बनी, क्योंकि इसमें विवाह, स्त्री चरित्र और पारंपरिक मूल्यों के बीच के तनाव को उजागर किया गया है।
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ऐसे वक्तव्य केवल महिलाओं को नहीं, पुरुषों को भी संबोधित करते हैं, लेकिन सोशल मीडिया पर देखने में आया कि अधिकतर टिप्पणियाँ सिर्फ लड़कियों पर केंद्रित होकर उन्हें गलत ठहराने की कोशिश कर रही हैं।
यहाँ सवाल यह नहीं है कि प्रेमानंद महाराज या अनिरुद्धाचार्यजी ने जो कहा वह आंशिक रूप से सही है या गलत — सवाल यह है कि क्या किसी व्यक्ति विशेष को, वह चाहे संत हो या कोई भी, समाज के चरित्र का सार्वजनिक मूल्यांकन करने का अधिकार है?
क्या प्रेमानंद महाराज का कहा हुआ आधा सच था?
अगर हम प्रेमानंद महाराज के बयान को निष्पक्ष दृष्टिकोण से देखें, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि उन्होंने जो कहा, वह पूरी तरह असत्य भी नहीं था — लेकिन अधूरा जरूर था।
सच यह है कि आज के समय में कुछ युवतियाँ ऐसे जीवनशैली का हिस्सा बन रही हैं जो परंपरागत सामाजिक मूल्यों से मेल नहीं खाती — जैसे बार-बार रिश्ते बदलना, लिव-इन रिलेशनशिप, या नशे की आदतें। लेकिन यहाँ सबसे महत्वपूर्ण शब्द है — "कुछ"। यदि उन्होंने अपने प्रवचन में यह संतुलन बनाए रखते हुए कहा होता कि "आज की कुछ लड़कियाँ ऐसा कर रही हैं", तो शायद इतना बड़ा विवाद न होता। उनकी बात की संवेदनशीलता बनी रहती और समाज के सभी वर्गों को असहज न करती।
लेकिन जब पूरे महिला वर्ग पर generalized टिप्पणी की जाती है, तो वह 'आधा सच' बन जाता है — और वही आधा सच, समाज में विभाजन और विवाद की वजह बनता है।
यही बात पुरुषों पर भी लागू होती है। जिस प्रकार कुछ युवतियाँ रास्ता भटक रही हैं, उसी तरह कुछ युवक भी हैं जो लिव-इन, व्यसन, और अनुशासनहीन जीवन शैली में लिप्त हैं। क्या यह सच नहीं है कि कुछ युवा लड़के भी अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़कर, आलस्य, असंवेदनशीलता, और सामाजिक गैर-जिम्मेदारी की राह पर चल रहे हैं?
लेकिन यदि हर लड़की को वैसा ही मान लिया जाए, जैसे कुछ लड़कियाँ हैं — या हर लड़के को वैसा ही मान लिया जाए, जैसे कुछ लड़के हैं — तो यह केवल अन्याय नहीं, बल्कि समाज की सामूहिक चेतना को भ्रमित करने वाली सोच है।
आज की पीढ़ी — दो विरोधाभासी तस्वीरें
यह भी सच है कि आज की युवा पीढ़ी (लड़के और लड़कियाँ दोनों) दो हिस्सों में बंटी हुई नज़र आती है:
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एक ओर वे युवा हैं जो आधुनिकता के नाम पर अनुशासनहीन जीवनशैली की ओर जा रहे हैं — जिसमें लिव-इन, ब्रेकअप कल्चर, व्यसन, और सामाजिक जिम्मेदारियों से बचने की प्रवृत्ति शामिल है।
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लेकिन दूसरी ओर वही पीढ़ी में कुछ ऐसे युवा भी हैं जो पहले से कहीं अधिक जागरूक, जिम्मेदार और आध्यात्मिक दृष्टि से परिपक्व हैं। वे समाज में बदलाव लाना चाहते हैं, पर्यावरण और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हैं, और गुरुजनों व मूल्यों को महत्व दे रहे हैं।
तो यह कहना गलत नहीं होगा कि आज के युवाओं पर पहले से कहीं अधिक जिम्मेदारी है। क्योंकि वे केवल खुद को ही नहीं, समाज को भी दिशा देने में सक्षम हैं।
समाज का नजरिया — सवाल सिर्फ लड़कियों पर क्यों?
इस पूरे विवाद में एक और बात सामने आई — आलोचना का केंद्र सिर्फ लड़कियाँ क्यों बनती हैं?
क्या हमारे समाज में अब भी यही सोच हावी है कि चरित्र और मर्यादा की ज़िम्मेदारी सिर्फ महिलाओं की होती है? यदि कोई युवा महिला लिव-इन में रहती है या रिश्तों के अनुभव से गुजरती है, तो क्या वह केवल उसी की जिम्मेदारी है? क्या ऐसे संबंधों में पुरुष की कोई भूमिका नहीं होती?
अगर लड़कियाँ बदनाम हो रही हैं, तो उनके साथ कौन हैं? क्या समाज मानता है कि सभी लड़के 'दूध के धुले' हैं?
जब दोनों पक्षों की भागीदारी होती है, तो सवाल सिर्फ एक ओर क्यों उठता है?
सच यह है कि आज के समय में लड़के और लड़कियाँ दोनों ही बदलती सामाजिक संरचना का हिस्सा हैं। रिश्तों की परिभाषा, स्वतंत्रता की समझ और जीवनशैली के निर्णय — सबमें बदलाव आया है। ऐसे में किसी भी एक वर्ग को दोषी ठहराना न केवल अनुचित है बल्कि समाज में असमानता की भावना भी बढ़ाता है।
संतों की वाणी में मर्यादा की आवश्यकता
संतों की वाणी समाज को जोड़ने वाली होनी चाहिए, तोड़ने वाली नहीं। जब उनकी बातें समाज के किसी वर्ग, विशेषकर महिलाओं को नीचा दिखाने लगें, तो उनके उद्देश्य पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है।
प्रेमानंद महाराज ने भले ही पुरुषों पर भी टिप्पणी की हो, लेकिन जिस प्रकार से उदाहरण दिए गए और जिस भाषा का प्रयोग किया गया, वह असहज कर देने वाला है।
जैसे— "चार होटल के खाने की आदत लग जाए तो घर का खाना अच्छा नहीं लगेगा", या "चार पुरुष से मिलने की आदत लग जाए तो एक पति को स्वीकार करना कठिन हो जाएगा", — ये बातें किसी स्त्री या पुरुष की स्वतंत्रता पर टिप्पणी कम, और सार्वजनिक अपमान अधिक लगती हैं।
अगर उद्देश्य सुधार है, तो भाषा में करुणा और संवेदनशीलता ज़रूरी है। किसी के जीवन के अनुभवों को व्यभिचार कहना केवल आलोचना नहीं, अपमान भी है।
महिलाओं की प्रतिक्रिया — आत्मसम्मान पर चोट
प्रेमानंद महाराज की टिप्पणी के बाद महिलाओं की ओर से कई प्रतिक्रियाएं सामने आईं, जिनमें भावनात्मक पीड़ा, आक्रोश और असहमति शामिल थी।
एक महिला ने लिखा, “आप किसी लड़की के कपड़ों से उसके चरित्र का आंकलन नहीं कर सकते।”
ये घटनाएँ दिखाती हैं कि कैसे समाज अब भी स्त्री के चरित्र को उसके पहनावे, चाल-ढाल और सामाजिक संपर्क से आंकता है। महिलाओं ने कहा, “हम अपने निर्णय खुद लेती हैं। यह हमारे अधिकार क्षेत्र में आता है। ना हम घरवालों के दबाव में जीते हैं, ना समाज के।”
माँओं की चिंता — बेटियों का भविष्य
माताओं ने इस बात पर दुख व्यक्त किया कि इस तरह की टिप्पणियाँ उनकी चिंता को बढ़ा रही हैं।
एक माँ ने कहा, “अगर ऐसे प्रवचन होते रहेंगे तो क्या हम चैन से सो पाएंगे, जब हमारी बेटियाँ अकेले बाहर रहें?”
उनका मानना है कि हर बेटी को एक ही नजर से नहीं देखा जा सकता। अगर बेटियों को अच्छे संस्कार और सही मार्गदर्शन मिले, तो समाज को उनके चरित्र पर संदेह नहीं करना चाहिए।
क्या हम पीछे जा रहे हैं?
कुछ संतों द्वारा यह सुझाव दिया गया कि लड़कियों की शादी 14 साल की उम्र में कर दी जानी चाहिए। इस पर कई शिक्षित महिलाओं ने प्रतिक्रिया दी —
"यह साइंस को नकारने जैसा है। अगर आप लड़कियों को इतनी कम उम्र में जिम्मेदारियों में झोंक देंगे तो पढ़ाई, करियर और आत्मनिर्भरता का क्या होगा?"
आज भारत की महिलाएं राष्ट्रपति, वित्त मंत्री, वैज्ञानिक और डॉक्टर बन रही हैं। क्या हम इस प्रगति को नकार कर फिर से रूढ़िवादिता की ओर लौट जाना चाहते हैं?
पुरुषों की भूमिका पर भी चर्चा जरूरी है
इस बहस का एक पहलू यह भी है कि पुरुषों की जिम्मेदारी और भूमिका पर बहुत कम चर्चा हो रही है।
जो पुरुष सोशल मीडिया पर लड़कियों के खिलाफ टिप्पणियाँ कर रहे हैं, वे खुद कितने आदर्श हैं?
क्या उन्होंने कभी introspection किया है?
क्या महिला सशक्तिकरण की हर पहल को "गंदगी का खजाना" कह देना जायज़ है?
अगर महिला के संबंध को 'व्यभिचार' कहा जाए, तो क्या पुरुष के अनुभवों को भी उसी तरह आँका जाएगा? या फिर हमारे सामाजिक पैमाने अब भी एकतरफा हैं?
धार्मिक प्रवचन — पुनर्विचार की आवश्यकता
धार्मिक प्रवचन जीवन को दिशा देने वाले हों — यह सभी की कामना होती है। लेकिन जब वे किसी एक वर्ग, एक लिंग या जीवनशैली को दोष देने लगते हैं, तो समाज में विघटन की भावना जन्म लेती है।
हर व्यक्ति की अपनी ज़िंदगी, अनुभव और परिस्थितियाँ होती हैं। किसी को अपने निर्णयों पर शर्मिंदा करने की बजाय, उन्हें सहानुभूति, समझ और मार्गदर्शन की ज़रूरत होती है।
निष्कर्ष: विवेक और सह-अस्तित्व की ओर बढ़ें
संतों का समाज में एक विशेष स्थान है। उनके शब्दों को लोग श्रद्धा से सुनते हैं और जीवन में उतारने की कोशिश करते हैं। ऐसे में उनकी ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है कि वे अपने प्रवचनों में समाज के हर वर्ग का सम्मान बनाए रखें।
यह ज़रूरी नहीं कि हर बात पर सहमति हो — लेकिन असहमति का स्वर भी गरिमा के साथ हो।
महिलाओं की गरिमा, स्वतंत्रता और उनके फैसलों का सम्मान किया जाना चाहिए। साथ ही, पुरुषों को भी अपने आचरण, सोच और सामाजिक जिम्मेदारी को समझना होगा।
आज का युवा समाज सिर्फ "पश्चिमी संस्कृति" का अंधानुकरण नहीं कर रहा — वह अपने लिए स्वतंत्रता, समझदारी और सम्मान की जगह बना रहा है। और उसमें पुरुष और महिला, दोनों समान रूप से जिम्मेदार और सहभागी हैं।
हमें यह नहीं तय करना कि कौन सही है और कौन गलत।
हमें यह तय करना है कि समाज में इंसानियत, सम्मान, और संवेदनशीलता कैसे बनी रहे।
आपका क्या मानना है? क्या आज के युवाओं की स्वतंत्रता को व्यभिचार समझा जाना चाहिए, या फिर समाज को सोच बदलनी चाहिए? अपनी राय ज़रूर साझा करें।
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